18 May 2023 12:14 AM
एक जमाना था जब शीशा बड़ा कीमती हुआ करता था। मेरी दादी के कमरे में एक छोटा सा शीशा दीवार में जड़ा हुआ था, जिसमें बमुश्किल वह अपना चेहरा भर देख सकती थी। काजल ठीक से लगा तो है, बड़ी-सी बिन्दी अपनी जगह पर तो है, दन्दासे (एक तरह की छाल) से रगड़े दाँत चमकदार और होठों पर लाली आयी की नहीं... बस इतना ही काफी था। मेरी माँ के दहेज में जब पहली बार ड्रेसिंग टेबल घर आयी तो सब बड़े खुश थे कि अब पूरा बदन शीशे में देख सकेंगे। कुछ रिवाज और फैशन अनुसार ना हुआ तो अपने को सुधार सकेंगे। यह आधुनिकता अब बड़ी भुआ को हजम ना हुई। नाक-भौं सिकोड़कर उलाहना देती दादी से बोली- हमें तो दहेज में ना दी ड्रेसिंग टेबल।
अब देखना भाभी घर के कामकाज करने के बजाये दिनभर शीशे में ही अपने को निहारा करेगी।
पर दादी की हुकुमत को कौन चैलेन्ज कर सकता था। घर के कामकाज की दौड़भाग के बीच कुछ पल बचाकर माँ ने अपने को शीशे में निहारना कभी नहीं छोड़ा। छोटी भुआ बड़ी खुश थी। वो बोली- भाभी को देखो, मधुबाला की तरह अपने बाल बनाती हैं। हम भी शीशे में देखकर मीनाकुमारी की तरह अपने को सँवारेंगे। छोटी भुआ को शीशे से बड़ा लगाव था। अगर अपने शरीर पर कुछ गलत नजर आता तो तुरन्त उसे सुधारने का प्रयास करती। जैसे शीशा ना हुआ, उसका मार्गदर्शक हो गया।
खैर, वो एक जमाना था जब शीशे की विश्वसनीयता पर कोई सवाल नहीं था। आज भी शीशे का चलन जोरों पर है। आज उसी परिवार के मेरे चचेरे भाई रमेश ने एक शानदार घर बनवाया है। जिसमें सब तरफ शीशे लगे हैं और नाम रखा है- शीशे का घर।
वाकई... छोटा कस्बा पर उस बीच बना यह शीशे का घर, और आसपास के लोगों पर रुतबे का असर यूं पड़ा कि भई बड़े साहब और उनका शीशे का घर यानी सबसे बना के रखेंगे क्योंकि कहावत है ना... जिनके घर शीशे के होते हैं.....
वैसे पुरानी कहावतों को रिव्यू करने का वक्त आ गया है। अलबत्ता शीशे के घर के टूटने की कोई गुंजाईश नहीं। दीवारें इतनी मजबूत और खासियत यह कि बाहर वालों को अन्दर झाँकने पर कुछ ना दिखेगा। पर अन्दर वाला बाहर का सबकुछ देख सकता है। अन्दर का मामला तो सिक्रेट पर बाहर नजर रखने की पूरी आजादी...। इतना कठोर, पर नहले पर दहल पड़े तो काँच किरची किरची हो जाये। वापस जुडऩे की भी गुंजाईश नहीं। है ना कितना अजीब कि कठोरता के लिए मशहूर... पलभर में चूर-चूर...।
गृह प्रवेश पर हमें भी बुलाया गया था। घर के आगे का मुख्य चेहरा पूरे शीशे का था। अन्दर ड्राईंग रूम, पूजा घर सभी शीशे की दीवारों से सजे थे। सीढिय़ों पर ग्लास की रेलिंग और बाथरूम में बाथ एरिया पूरी शीशे की। शीशे की डाईनिंग टेबल और हॉल की छत पर बड़ा सा शीशे का झूमर। सारा घर शीशामय लग रहा था।
पिंकी धीरे से बोली- ऐसे में प्राईवेसी कहाँ रहेगी भला?
ये शीशे पारदर्शी दिखते हैं। हैं नहीं। अपने विधायक मनीराम जी की तरह, जो कहते हैं कि मेरा मन और मेरा बैंक बैलेन्स शीशे की तरह पारदर्शी है। रिंकी का अपना मत।
ड्राईंगरूम की शीशों की दीवार को देखकर राहुल ने बताया कि ये फ्रॉस्टेड ग्लास हैं। इसे प्राईवेसी ग्लास भी कहा जाता है। यह बहुत कम प्रकाश को गुजरने देता है। यह उजाले के क्षेत्र को छिपाने के लिये भी तैयार किया जाता है।
और यहाँ बेडरूम में देखो- टिंटेड ग्लास। यानी रंगीन ग्लास लगाये गये हैं। इसका उपयोग आँखों के सुखदायक अनुभव के उद्देश्य से किया जाता है।
और भी अनेक अंडरस्टैंडिंग ग्लास जो मन और सिचवेशन को बैलेंस करने के लिए लगाये गये थे।
मुझे तो लगा रमेश से सुखी और कोई हो ही नहीं सकता। उसने शीशे के जरिये अपने को श्रेष्ठ साबित करने की कोशिश की थी। वैसे शीश कब से श्रेष्ठ और सुख का माध्यम बन गया।
पर रमेश ने बड़े गर्व से अपने कुछ सिक्रेट शेयर किये। कैसे शेयर बाजार में आये उछाल और बड़े भाई से सम्पत्ति विवाद में बड़ा हिस्सा हड़प कर करोड़ों कमाये। बाबा ज्ञानानन्द का प्रवचन कराकर मोहल्ले में बाहुबली बना और बाबा से ऐसा लिंक जुड़ा कि सब वारे न्यारे। बाबा ने ही सुझाव दिया शीशे का घर तुम्हारे लिये शुभ होगा।
मैंने कहा- सिक्रेट है पर दीवारों के कान हों तो?
पर मेरी दीवारें तो शीशे की हैं, कोई गुंजाईश ही नहीं।
दीवार ना सही कुछ कान ने ही अपने श्रवण का भरपूर उपयोग कर सब जाहिर कर दिया। फिर क्या... अचानक एक दिन बाहर का शीश चकनाचूर हुआ मिला।
पंगा बहुत हो गया। संदेह के आरोप में बड़े भाई सहित कई लोग उलझ पड़े। मामला अब कोर्ट में है।
वैसे पुरानी कहावत में दम तो है... जिनके घर शीशे के होते हैं, वे औरों पर पत्थर नहीं फेंका करते।
नयनतारा छलाणी
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