जैनाचार्यश्री की 12 उपवास के साथ सूरी मंत्र की साधना की अनुमोदना

ज्ञान आत्मा का गुण व आत्मा का अपना स्वरूप-मुनि सम्यक रत्न सागर महाराज

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बीकानेर,15 अक्टूबर। जैनाचार्य श्री जिनपीयूष सागर सूरीश्वरजी म.सा. आदि ठाणा 18 , साध्वी श्री विजय प्रभा श्रीजी, प्रभंजना श्रीजी आदि ठाणा के सानिध्य में आयोजित चल रहे नवपद ओली में मंगलवार को सम्यग् ज्ञानपद की आराधना, जाप किया गया। आचार्यश्री के 12 उपवास के साथ सूरी मंत्र साधना की अनुमोदना चतुर्विद संघ ने की।

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प्रवचन पंडाल में धर्म चर्चा में बीकानेर के मुनि सम्यक रत्न सागर महाराज ने कहा कि ज्ञान आत्मा का गुण व आत्मा का अपना स्वरूप है। ज्ञान के प्रकट नहीं होने तक आत्मा संसार सागर में भटकती है। ज्ञान प्रकट होने पर आत्मा के संसार के भ्रमण का अंत आता है। श्रुतज्ञान से आरंभ हुई ज्ञान साधना केवलज्ञान की प्राप्ति से पूर्ण होती है। केवल ज्ञान आत्मा का मूलभूत स्वभाव व पूर्ण ज्ञान है। केवलज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म का सर्वथा क्षय होने पर उत्पन्न होता है। केवल ज्ञान प्राप्त होने के बाद कभी लुप्त नहीं होता। जीव को कभी संसार में जन्म नहीं लेना होता है। अनुपम कोटि के ज्ञान प्राप्ति के लिए सुयोग्य साधना व पुरुषार्थ करने पर शेष मनःपर्यय ज्ञान और अवधि ज्ञान की प्राप्ति आत्मा को हो जाती है।

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उन्होंने ज्ञान के पांच भेद मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान व केवल ज्ञान का विस्तृत वर्णन करते हुए कहा कि केवल ज्ञान के अतिरिक्त चार ज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से होते है। वे क्षयोपशम भाव के कहलाते है। केवलज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से होता है। मनःपर्यवज्ञान तथा केवल ज्ञान मिथ्यात्व की उपस्थिति में हो यह कभी संभव नहीं बनता। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान अज्ञान रूप में सर्व मिथ्या दृष्टि संसारी जीवों को होता है। मनःपर्यवज्ञान केवल मनुष्य को और वह भी छठे सातवें गुणस्थान तक पहुंचे हुए संयम साधको को होता है। मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यय और केवलज्ञान ये चारों ज्ञान मुंधे मुक होते है। केवल श्रुत ज्ञान ही बोलता है।

कर्मों का खेल निराला
बीकानेर मूल की साध्वी प्रभंजना श्रीजी महाराज ने श्रीपाल मैना सुंदरी की कथा के माध्यम से बताया कि आराध्य देव की स्तुति, वंदना से पुण्य जागृत होते है तथा पापों का नाश होता है। आराध्य देव साधक की विषम परिस्थिति,कष्ट व संकट के समय में रक्षा करते है। उन्होंने कहा कि कर्मों का खेल भी निराला व अजीब है। कभी ऊपर कभी नीचे है, कभी धूप कभी सुख की छांव का अहसास कराता है। कर्मों के खेल पर विचलित नहीं होकर संयम व समता भाव से हर परिस्थिति को परमात्मा का स्मरण करते हुए सहन करें।

 

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