समतावादी समाज के पक्षधर थे महात्मा ज्योतिबा फूले
महात्मा ज्योतिबा पुण्यतिथि (28 नवम्बर) पर विशेष
डाॅ. वीरेन्द्र भाटी मंगल
महात्मा ज्योतिबा फुले भारत के महान व्यक्तित्वों में से एक थे। ये एक समाज सुधारक, लेखक, दार्शनिक, विचारक, क्रान्तिकारी के साथ साथ विविध प्रतिभाओं के धनी थे। इनको महात्मा फुले एवं जोतिबा फुले के नाम से भी जाना जाता है। इन्होंने महाराष्ट्र मे सितम्बर 1873 में सत्य शोधक समाज नामक संस्था का गठन किया। महिलाओं, पिछडे और अछूतो के उत्थान के लिये महात्मा ज्योतिबा फूले ने अनेक कार्य किए। वे समाज के सभी वर्गो को शिक्षा प्रदान करने के ये प्रबल समथर्क थे। महात्मा फूले का मूल उद्देश्य स्त्रियों को शिक्षा का अधिकार प्रदान करवाने के साथ-साथ बाल विवाह का विरोध, विधवा विवाह का समर्थन करना रहा है। महात्मा फुले समाज की कुप्रथा, अंधश्रद्धा की जाल से समाज को मुक्त कराना चाहते थे। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन स्त्रियों को शिक्षा प्रदान कराने में, स्त्रियों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने में व्यतीत किया। देष में 19 वीं सदी में जागरूकता के अभाव में स्त्रियों को शिक्षा लेने का अधिकार नहीं था। फुले स्त्री-पुरुष भेदभाव समाप्त करने के पक्षधर थे। उन्होंने कन्याओं के लिए भारत देश की पहली स्कूल पुना (पुणे) में स्थापित थीं। स्त्रियों की तत्कालीन दयनीय स्थिति से फुले बहुत व्याकुल और दुखी होते थे इसीलिए उन्होंने दृढ़ निश्चय किया कि वे समाज में क्रांतिकारी बदलाव लाकर ही रहेंगे।
महात्मा फूले के क्रांतिकारी कार्य
शोषित पीड़ित मानव को ऊँचा उठाना, छुआछुत, अन्धविश्वास मिटाना शिक्षा में क्रान्ति लाना, कृषि क्रान्ति के द्वारा किसानों को आत्मनिर्भर बनाना, मजदूर वर्ग को संगठित करना, निःशुल्क शिक्षा के द्वार खोलना, नारी शिक्षा प्रारम्भ करना, बाल हत्या, भ्रूण हत्या बन्द करवाना, प्रतिगृह बनवाकर विधवाओं को आश्रय देना, विधवा विवाह शुरूकर, विधवा आश्रम बनवाना, वाचनालय, पुस्तकालय खोलना, सत्यशोधक समाज की स्थापना, सती प्रथा एवं कुरीतियों का विरोध, मजदूरों को अधिकार व रोजगार दिलाना आदि अनेक कार्य कर देष को अपने क्रांतिकारी कार्यों से प्रभावित किया।
प्रारंभिक जीवन एवं शिक्षा
ज्योतिराव गोविंदराव फुले का जन्म 11 अप्रैल 1827 ई. को तात्कालिक ब्रिटिश भारत के खानवाडी (पुणे) में हुआ था। इनकी माता का नाम चिमनाबाई और पिता का नाम गोविंदराव था। इनकी मात्र एक वर्ष की अवस्था में ही इनकी माता का स्वर्गवास हो गया। इसके बाद इनके पालन पोषण के लिए सगुणाबाई नामक एक दाई को लगाया गया। फूले ने प्रारंभ में मराठी भाषा में शिक्षा प्राप्त की। परन्तु बाद में जाति भेद के कारण बीच में ही इनकी पढ़ाई छूट गयी। बाद में 21 वर्ष की अवस्था में इन्होंने अंग्रेजी भाषा में मात्र 7 वीं कक्षा तक की पढ़ाई सम्पन्न की। महात्मा फूले का परिवार कई पीढ़ी पहले सतारा से आकर खानवाडी (पुणे) बसा था। यहाँ आकर इन्होंने फूलों का काम शुरू किया और उससे गजरा व माला इत्यादि बनाने का काम शुरू किया। इसलिए ये ‘फुले’ के नाम से जाने गए।
वैवाहिक जीवन एवं धर्मपत्नि
इनका विवाह सन् 1840 ई. में सावित्री बाई फुले के साथ हुआ। महात्मा फूले से षिक्षा ग्रहण करने के बाद में सावित्रिबाई स्वयं एक प्रसिद्ध स्वयंसेवी महिला के रूप में प्रसिद्ध हुई। स्त्री शिक्षा और दलितों को शिक्षा का अधिकार दिलाने के अपने उद्देश्य में दोनों पति-पत्नी ने साथ मिलकर कार्य किया। कुछ लोगों ने आरम्भ से ही उनके काम में बाधा डालने का प्रयास किया, किंतु जब फूले दम्पति आगे बढ़ते ही गए तो उनके पिता पर दबाब डालकर पति-पत्नी को घर से निकालवा दिया। इससे कुछ समय के लिए उनका काम रुक गया किंतु शीघ्र ही उन्होंने षिक्षा के क्षेत्र में कार्य प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने अपनी धर्मपत्नी सावित्रीबाई फुले को स्वयं शिक्षा प्रदान कर भारत की प्रथम महिला अध्यापिका होने का गौरव प्रदान करवाया।
18 महिला स्कूलों की स्थापना
इन्होंने सन् 1848 ई शिक्षा के क्षेत्र में कुछ करने के उद्देश्य से एक स्कूल खोला। स्त्री शिक्षा और उनकी दशा सुधारने के क्षेत्र में यह पहला कदम था। परन्तु इसके बाद एक और समस्या आयी कि लड़कियों को पढ़ाने के लिए कोई शिक्षिका नहीं मिली। तब इन्होने दिन रात एक करके स्वयं यह कार्य किया और पत्नी सावित्री बाई फुले को इस काबिल बनाया। उनके इस कार्य में कुछ उच्च वर्ग के पितृसत्तात्मक विचारधारावादियों ने उनके कार्य में बाधा डालने की कोशिश की। परन्तु ज्योतिबा फूले नहीं रुके और एक के बाद एक कुल 18 स्कूल स्थापित कर दिये।
सामाजिक क्षेत्र में उपलब्धियां व कार्य
सत्यशोधक समाज की स्थापना के साथ ही वे समाज के सभी वर्गों के लिए शिक्षा प्रदान किये जाने का आह्वान किया। ये भारतीय समाज में प्रचलित जाति व्यवस्था के घोर विरोधी थे। इन्होने समाज के जाति आधारित विभाजन का सदैव विरोध किया। इन्होंने जाति प्रथा को समाप्त करने के उद्देश्य से बिना पंडित के ही बॉम्बे हाई कोर्ट से मान्यता प्राप्त कर विवाह संस्कार प्रारंभ कर दिये। इन्होंने बाल-विवाह का विरोध किया। ये विधवा पुनर्विवाह के समर्थक थे। जिसके परिणाम स्वरूप सैकड़ों विधवाओं की शादी सम्पन्न करवायी।
1 जनवरी 1848 को पूना में स्त्री शिक्षा शुरू, 1849 में उस्मान शेख के बाड़े में प्रौढ़ शिक्षा शुरू, 153 में बाल हत्या प्रति बंधक गृह खोलना, 1855 में रात्रिशाला में किसान मजदूरों को पढ़ाना, 1865 में विधवा आश्रम खोलना, विधवा काशीबाई के पुत्र यशवन्त को गोद लेना, 1868 में छुआछूत भेदभाव मिटाने के लिए घर का कुआ खोल देना, 1873 सत्य शोधक समाज की स्थापना एवं 24 सितम्बर को गुलाम गिरी पुस्तक लिखना, पूणे में 52 अन्नक्षेत्र, अकाल राहत खोलना, 1854 में उच्चवर्ग की विधवाओं के लिए घर बनवाना, खुद के घर के दरवाजे सभी वर्ग विधवाओं के लिए खोल दिये, 1888 में मुम्बई की विशाल सभा में महात्मा की उपाधि मिलना, किसानों के लिए सरकार से एग्रीकल्चर एक्ट पास करवाया, 1882-83 में न का कोड़ा नामक पुस्तक लिखी, जिसका प्रकाशन महात्मा फूले की मृत्यु के बाद हुआ। प्रथम बार दलित शब्द का प्रयोग महात्मा ज्योतिबा फूले कर दलितों हितों के प्रति संघर्ष किया।
महात्मा ज्योतिबा फुले का साहित्य
महात्मा ज्योतिबा फूले समाज चिंतक होने के साथ एक उच्च कोटि के लेखक भी थे। इनके द्वारा लिखी गयी प्रमुख पुस्तकें निम्नलिखित हैं-गुलामगिरी (1873), क्षत्रपति शिवाजी, अछूतों की कैफियत, किसान का कोड़ा, तृतीय रत्न, राजा भोसला का पखड़ा इत्यादि है। इनके विचारों को जन-जन तक पहुचानें में आज भी यह पुस्तकें अपना योगदान दे रही है।
महात्मा की उपाधि व निधन
सत्य शोधक समाज की स्थापना के बाद महात्मा फूले के सामाजिक कार्यों की सराहना व गूंज सम्पूर्ण देश भर में होने लगी। इनकी समाजसेवा को देखते हुए मुंबई की एक विशाल आम सभा में 11 मई 1888 ई. को विट्ठलराव कृष्णाजी वंडेकर जी ने इन्हें महात्मा की उपाधि से सम्मानित किया। जिसके कारण वे महात्मा ज्योतिबा फूले के नाम से जाने जाते है। इनका निधन 28 नवंबर 1890 ई. को 63 वर्ष की आयु में पुणे (महाराष्ट्र) में हुआ।