सुदेवों को मांस-मदिरा व अभक्ष्य सामग्री चढ़ाना मिथ्यादृष्टि-मुनि सम्यक रत्न सागर

बीकानेर, 22 अक्टूबर। जैनाचार्य पीयूष सागर सूरीश्वरजी के सान्निध्य में मंगलवार को ढढ्ढा चौक के प्रवचन पंडाल में धर्मचर्चा में बीकानेर के मुनि सम्यक रत्न सागर महाराज ने कहा कि जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। प्रत्येक आत्मा में अनंत ज्ञान विद्यमान है। ज्ञानावणीय कर्म से ढके होने के कारण व रूप में प्रकट नहीं हो पाता। ज्ञान के पांच प्रकार है मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यवज्ञान और केवल ज्ञान ।
उन्होंने अवधि ज्ञान का विस्तृत वर्णन करते हुए कहा कि कोई सुदेव मांस-मदिरा व अन्य अभक्ष्य सामग्री को चढ़ाने से प्रसन्न होकर साधक के लिए कल्याणकारी नहीं बन सकते। भैरवजी व अन्य देवताओं को आदि अभक्ष्य सामग्री चढ़ाना मिथ्यादृष्टि है। देवताओं के प्रभाव को अपने शरीर में प्रवेश का स्वांग रचकर दूसरों के जीवनफल बताने, संकटों से मुक्त करने के वादे करने वाले अपनी दुकानदारी व धंधा चलाते है। पूर्व व वर्तमान कर्मों के अनुसार मिले विभिन्न तरह के कष्ट व संकट से परेशान भोले भाले लोगों को भ्रमित व गुमराह करने का कार्य करते है। श्रावक-श्राविकाओं को ऐसे लोगों से बचना चाहिए। कष्ट व संकट के समय को परमात्मा का स्मरण करते हुए दृढ़ आत्मबल, धैर्य, शांति और संयम के साथ निकालने का पुरुषार्थ व प्रयास करना चाहिए।

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मुनि महाराज ने कहा कि द्रव्य क्षेत्र, काल भाव की मर्यादा लिए जो मात्र रूपी (दिखाई) देने वाले पदार्थों को स्पष्ट जाने उसे अवधि ज्ञान कहा गया है। इसको दिव्यदृष्टि ज्ञान भी कहा जाता इसमें आत्मा को देखने की शक्ति मिलती है। यह आत्ममात्र सापेक्ष प्रत्यक्ष ज्ञान का प्रकार है। इसमें इंद्रियों की पहुंच से परे चीजों का पता चलता है। जन्म से ही नारकों और देवताओं को अवधिज्ञान की क्षमता होती है। तीर्थंकरों को जन्म से ही अवधि ज्ञान होता है, जबकि सामान्य अरिहंतों के लिए ऐसा नहीं होता।

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उन्होंने बताया कि भव्य प्रत्यय अवधि ज्ञान, भव प्रत्यय व गुण प्रत्यय ज्ञान, अनुगामी अवधि ज्ञान, अन अनुगामी अवधि ज्ञान, वर्तमान अवधि ज्ञान, अप्रतिपाती अवधि ज्ञान। उन्होंने कहा कि देव,नरक व तीर्थंकर की पर्याय को धारण करने वाले जीवों को जो अवधिज्ञान होता है, वह भव प्रत्यय अवधि ज्ञान कहलाता है। यह अवधिज्ञान आत्मा के सर्व प्रदेशों में उत्पन्न होता है। गुण प्रत्यय अवधि ज्ञान किसी विशेष पर्याय की अपेक्षा न करके जीव के पुरुषार्थ के द्वारा उत्पन्न होता है । यह ज्ञान सम्यक दृष्टि मनुष्य, संज्ञी पंचेन्द्रिय और तीर्यन्च को ही होता है। यह ज्ञान नाभी के ऊपर के आत्म प्रदेश में होता है। मुनि शाश्वत रतन सागर महाराज ने प्रवचन किए तथा मंगलपाठ सुनाया।

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