अतीन्द्रिय ज्ञान के धनी थे आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी

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आचार्य श्री महाप्रज्ञ के जन्म दिवस पर विशेष

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मुनि कमल कुमार

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जैन धर्म की मान्यता है कि यह संसार अनादि काल से चला आ रहा है, परिवर्तन का क्रम भी शाश्वत है, सृष्टि का कर्ता-हर्ता व्यक्ति स्वयं है। भगवान किसी को सुखी-दुखी नहीं बनाते, मनुष्य अपने दुष्कृत्य से दुखी और सुकृत से सुखी बनता है। यह हम साक्षात देख रहे हैं कि बड़े से बड़े पदों पर प्रतिष्ठित व्यक्ति भी अपने दुष्कृत्य के कारण कारावास में निवास कर रहे हैं और साधारण कुल में पैदा होने वाले व्यक्ति भारत रत्न, विश्व रत्न जैसे अलंकारों से नवाज़े जा रहे हैं।

आज के लोग गाँवों को छोड़कर शहरों की ओर दौड़ लगा रहे हैं क्योंकि ग्रामीण लोगों को अध्ययन, उपचार, व्यापार, परिवार यापन के समुचित साधनों की उपलब्धि नहीं हो पाती। परन्तु आत्मोत्थान एवं आत्मकल्याण के लिए निमित्तों से ज़्यादा उपादान की महत्ता होती है। उपादान व्यक्ति स्वयं होता है, उपादान बलवान होता है तो व्यक्ति कहीं रहे वह हर तरह से विकसित हो सकता है। ऐसा ही एक प्रसंग है आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी के जीवन का, जो सभी के लिए पठनीय, चिंतनीय एवं अनुकरणीय है।

आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी

आचार्य महाप्रज्ञ का जन्म हिन्दू तिथि के अनुसार विक्रम संवत 1977, आषाढ़ कृष्ण त्रयोदशी को राजस्थान के टमकोर नामक गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम तोलाराम तथा माता का नाम बालू था। आचार्य महाप्रज्ञ का बचपन का नाम नथमल था। उनके बचपन में पिता का देहांत हो गया था। माँ बालू ने उनका पालन-पोषण किया। उनकी माँ धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी। इस कारण उन्हें बचपन से ही धार्मिक संस्कार मिले थे।

आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी का जन्म राजस्थान के झूझनूं ज़िले के अंतर्गत छोटे से गाँव टमकोर में हुआ। मात्र ढाई महीने की अवस्था के समय पिता श्री तोलाराम जी का स्वर्गवास हो गया। परिवार के पालन पोषण की समस्या हो गई। आपकी माता बालूजी आपको लेकर अपने पीहर चली गई। ननिहाल वाले आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न थे, वहाँ आपका शैशव काल बीता परंतु वह भी सरदारशहर के पास खींवसर गाँव ही था, वहाँ भी यातायात या अध्ययन की उत्तम व्यवस्था नहीं थी। कुछ बड़े होने पर आपके पारिवारिक जन पुनः टमकोर आये वहाँ उस समय मुनि श्री छबील जी स्वामी का चातुर्मास था उनके सहयोगी मुनि मूलचंद जी की आप पर विशेष कृपा रही और आप शिशु वय में वैरागी बन गये।

आपने अष्टमाचार्य पूज्य कालुगणी के प्रथम दर्शन गंगाशहर में वैरागी के रूप में किये। माँ-बेटे की वैराग्य भावना को देखकर पूज्य प्रवर ने श्रमण प्रतिक्रमण का आदेश प्रदान करवाया। आप कुछ दिन गंगाशहर सेवा करके वहाँ विराजित तुलसी मुनि के भक्त बन गये। आपकी दीक्षा सरदारशहर में हुई और आपको दीक्षा देते ही पूज्य कालूगणी ने मुनि तुलसी के पास प्रारंभिक अध्ययन के लिए नियुक्त कर दिया। एक कहावत है- जैसा संग, वैसा रंग। मुनि तुलसी ने अपनी क्षमताओं से उस अनपढ़ बालक को ऐसा तैयार किया कि वे अज्ञ से महाप्रज्ञ बन गये। मुनि तुलसी का कठोर परिश्रम और मुनि नथमल का विनय-समर्पण भाव अपने आप में एक उदाहरण बन गया। बचपन में पिता का स्वर्गवास हो जाना एक नियति है परंतु उपादान बलवान होता है तो उसे अपने आप सब तरह का शुभ योग मिलता ही रहता है।

आचार्य श्री महाप्रश जी पर पूज्य कालुगणी की विशेष कृपा रहती थी तो आचार्य श्री तुलसी की उससे सवाई कृपा कह सकते हैं। यही कारण है आपको सतत गुरुकुलवास का अवसर प्राप्त होता रहा। आपका अध्ययन तलस्पर्शी होने के कारण आप हर विषय पर सटीक और धारा प्रवाह लिखने और बोलने में सक्षम बनें। मैंने कई बार आचार्य श्री तुलसी से सुना है कि मेरे महाप्रज्ञ को अतीन्द्रिय ज्ञान उपलब्ध है। हिंदी. संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में आपके द्वारा लिये गये सैकड़ों ग्रंथ आज भी गीता, रामायण, गुरूग्रंध साहब कुरान पुराण की तरह अमर बन गये हैं।

आपकी पुस्तकें विविध भाषाओं में प्रकाशित हुई है जिससे इंग्लिश, गुजराती, कन्नड़, उड़िया एवं पंजाबी लोगों को भी आपके साहित्य को पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हो सके। आचार्य श्री तुलसी ने अपने रहते हुए ही आपको अपना उत्तराधिकारी ही नहीं स्वयं आचार्य पद का विसर्जन कर आपको आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करके तेरापंथ धर्मसंघ में एक स्वर्णिम पृष्ठ रच दिया। आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी ने आचार्य बनने के बाद भी अपने श्रम को यथावत रखा और जीवन के दावें दशाक तक पूर्ण सक्रियता का जीवन जौपा। उनकी बाह्याभ्यन्तर यात्राएँ निरंतर गतिमान रही। वे केवल ध्यान, मौन, लेखन, प्रवचन में ही अपना समय नहीं लगाते बल्कि आगंतुक लोगों की पूरी सार सम्भाल कर उन्हें उचित मार्गदर्शन भी देते। राजस्थान के अलावा गुजरात, महारष्ट्र, हरियाणा, पंजाब एवं दिल्ली आदि राज्यों में भ्रमण करते रहे।

आचार्य श्री महाप्रज्ञ एक साधारण ग्रामीण व्यक्ति से लेकर देश के दिग्गज नेताओं, उद्योगपतियों एवं पत्रकारों को भी अपने ज्ञान चेतना से प्रभावित किया। वे एक सम्प्रदाय विशेष के आचार्य होते हुए भी अन्य सम्प्रदायों के शिखर पुरुषों के मन में अपना गहरा स्थान बना पाये। उनकी ही कृपा से आज हमें आचार्य महाश्रमण जी जैसे तपस्वी, मनस्वी एवं यशस्वी आचार्य प्राप्त हुए है, जो देश-विदेश में पैदल भ्रमण करके लाखों करोड़ों लोगों को स्वस्थ मस्त, आत्मस्थ एवं प्रशस्त जीवन जीने की कला सिखा रहे है। में आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी के 105वें जन्मदिवस पर यही मंगल कामना करता हूँ कि हमें आपकी अज्ञात रूप में भी निरंतर ऊर्जा मिलती रहे जिससे हमारे जीवन की बगिया भी सतत खिलती रहे।

 

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