तमिलनाडु के 10 बिल बिना राज्यपाल या राष्ट्रपति की मंजूरी बने अब कानून

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  • सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला से राष्ट्रीय असर अब अन्य गैर-भाजपा राज्यों में भी उम्मीद जगी

नई दिल्ली , 12 अप्रैल। Tamil Nadu Bill Controversy: तमिलनाडु सरकार द्वारा दो बार पारित किए गए 10 बिल, जिनको राज्यपाल आरएन रवि (Governor RN Ravi) ने 2020 से मंजूरी नहीं दी थी, अब आधिकारिक तौर पर कानून बन गए हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद अब बिना राज्यपाल या राष्ट्रपति के मंजूरी के लिए सभी 10 बिल, कानून बन गए हैं। यह पहली बार हुआ है जब कोई राज्यपाल या राष्ट्रपति (President) की मंजूरी के बिना बिल सीधे कानून में तब्दील हुए हों। सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court of India) की बेंच ने इस सप्ताह ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए राज्यपाल की असहमति को असंवैधानिक और अवैध करार दिया।इस फैसले से न्यायपालिका की गरिमा में बढ़ोतरी हुयी है।

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सुप्रीम कोर्ट का निर्देश: ‘बिल दोबारा भेजे जाने की तारीख से माने जाएंगे मंजूर’
जस्टिस एसबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की बेंच ने कहा कि अगर कोई राज्यपाल पहली बार बिल पर असहमति जताते हैं और राज्य विधानसभा उसे दोबारा भेजती है, तो वे उसे राष्ट्रपति के पास नहीं भेज सकते। कोर्ट ने कहा कि ऐसे सभी बिल दोबारा प्रस्तुत करने की तारीख से स्वीकृत माने जाएंगे। इसका मतलब है कि ये 10 बिल 18 नवंबर 2023 से प्रभावी रूप से कानून बन गए हैं, जिनकी गजट अधिसूचना तमिलनाडु सरकार द्वारा जारी की गई है।

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राज्यपाल की शक्तियों में कटौती, उपकुलपति नियुक्ति से संबंधित बिल प्रमुख

इन बिलों में सबसे प्रमुख है Vice Chancellors Appointment Bill, जो राज्यपाल के अधिकार को सीमित करता है। अब राज्यपाल को विश्वविद्यालयों में उपकुलपति नियुक्त करने की शक्ति सीधे नहीं मिलेगी।
राजनीतिक टकराव से लेकर कोर्ट तक: DMK बनाम राज्यपाल
राज्यपाल द्वारा बिल दो बार लौटाने के बाद DMK सरकार ने विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर सभी बिल फिर से पारित किए और दोबारा भेजे लेकिन राज्यपाल ने उन्हें राष्ट्रपति को भेज दिया। मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन (MK Stalin) ने इस फैसले को भारतीय राज्यों की ऐतिहासिक जीत करार दिया। उनका आरोप रहा है कि राज्यपाल भाजपा (BJP) के राजनीतिक इशारों पर काम कर रहे हैं और विकास में बाधा बन रहे हैं।

सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणी: ‘राज्यपाल की भूमिका लोकतंत्र के अधीन’
कोर्ट ने साफ कहा कि संविधान के अनुच्छेद 200 (Article 200) के तहत राज्यपाल के पास तीन ही विकल्प होते हैं-मंजूरी देना, असहमति जताना, या राष्ट्रपति को भेजना। लेकिन यह सभी प्रक्रिया एक माह की समयसीमा में पूरी होनी चाहिए। कोर्ट ने यह भी जोड़ा कि राज्यपाल की शक्तियों को कम नहीं किया जा रहा है लेकिन वे पूरी तरह संसदीय लोकतंत्र की भावना के अधीन हैं।

राष्ट्रीय असर: अन्य गैर-भाजपा राज्यों में भी उम्मीद जगी

यह फैसला सिर्फ तमिलनाडु ही नहीं बल्कि अन्य गैर-भाजपा शासित राज्यों जैसे पश्चिम बंगाल, केरल, और तेलंगाना के लिए भी मिसाल बन गया है, जहां राज्यपाल और सरकारों के बीच तनाव लंबे समय से बना हुआ है। दरअसल, जहां भी गैर-बीजेपी शासित राज्य हैं वहां राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच काफी मतभेद देखने को मिल रहा है।

 

 

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