भगवान महावीर के सिद्धांत आज भी उतने ही उपयोगी हैं जितने अतीत में थे- मुनिश्री कमल कुमार


उग्रविहारी तपोमूर्ति मुनि कमल कुमार



भगवान महावीर इस अवसर्पिणी काल के चरम तीर्थंकर कहलाये। उनका जन्म बिहार प्रांत के अन्तरगत वैशाली राज्य के कुंडलपुर ग्राम में हुआ। आपके पिताश्री का नाम राजा सिदार्थ और माता का नाम त्रिशला था। भगवान महावीर ही ऐसे तीर्थंकर हुए जो दो माताओं की कुक्षि में पले प्रथम देवानंदा ब्राहमनी की कुक्षि मे 82 दिन और द्वितीय माता त्रिशला की कुक्षि में पले। भगवान महावीर का जन्म चैत्र शुक्ला त्रियोदशी के दिन हुआ। तीर्थंकरों के पाँच कल्याणक होते हैं च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवल ज्ञान ओर निर्वाण। इन पांचों समय में देवता उत्सव मनाते हैं। नारकी के जीव भी प्रसन्नता का अनुभव करते हैं।



भगवान महावीर ने गर्भकाल में ही यह संकल्प कर लिया था कि जब तक माता पिता जीवित रहेंगे तब तक में दीक्षा नहीं लूंगा इसी संकल्प के कारण लगभग 28 वर्षों तक वे गृहस्थावास में रहे। किशोरावस्था में उनकी शादी की गई, एक पुत्री का भी जन्म हुआ ओर उसकी शादी भी कर दी गई। यह सब गृहस्थावास में रहते ही हो गया। माता पिता के स्वर्गवास के बाद उन्होंने अपने अग्रज नन्दीवर्धन से दीक्षा की अनुमति मांगी। भाई की अनुमति नहीं मिलने के कारण दो वर्षों तक घर में साधना करते रहे। उनके उत्कृष्ठ बैराग्य को देखकर नन्दीवर्धन का मन परिवर्तन हुआ और दीक्षा की सहर्ष अनुमति दे दी। अनुमति मिलते ही आपने सिद्धों की साक्षी से स्वहस्त पंचमुट्ठी लुंचन कर दीक्षा स्वीकार की।
दीक्षा के समय आपने पांच संकल्प किये कि जब तक केवल ज्ञान नहीं हो तब तक मौन रहूंगा, करपात्र रहूँगा, ऐसी जगह रहूँगा जिससे किसी को कष्ट नहीं हो, साधना के लिए अच्छे स्थान की कोशीश नहीं करूंगा अर्थात शुन्य स्थानों में रहूँगा। अपनी आवश्यकताओ के लिए किसी को संकेत नहीं करूँगा। इस प्रकार अपने पांचोंसंकल्पों को सुदृढ़मना पालते हुए भ्रमण करते रहे। भगवान ने साधनाकाल में कम से कम दो दिन और अधिक से अधिक छह महिने की निर्जल साधना की। वे घंटों घंटों ही नहीं महिनो महिनों तक मौन ध्यान की खड़े खड़े उत्कृष्ट साधना करते रहे। साधनाकाल में भयंकर उपसर्ग आए परंतु भगवान का चित्त कंपायमान नहीं हुआ। क्योंकि वे जानते थे कि मैंने अपने साधुत्व स्वीकार से पूर्व अनेक जन्मो में कर्मों का बंधन कर रखा है। वे जबतक समाप्त नहीं होंगे तब तक तो उपसर्ग आते ही रहेंगे। उन्होंने देवकृत मनुष्य और तिर्यंजकृत हर उपसर्ग को साम्यभाव से सहन किया ।
समता से हरस्थिति को सहन करना बहुत बड़ी तपस्या है और भव भ्रमण मिटाने का सुगम उपाय है। लगभग तीस वर्ष की अवस्था में दीक्षा ली। लगभग साढ़े बारहवर्ष तक तीव्र साधना करते रहे और केवल्य ज्ञान की उत्पत्ति के बाद तीस वर्ष तक ग्राम.ग्राम पैदल भ्रमण कर अहिंसा, संयम, तप का उपदेश देते रहे। उसी का सुपरिणाम था कि लगभग चौदह हजार साधु और छत्तीस हजार साध्वियों ने संयम ग्रहण किया। साधु साध्वी बनने वाले महाव्रती बने तो लाखों गृहस्थ अणुव्रती बने। महाव्रत यानि संपूर्ण व्रत और अणुव्रत का मतलब आंशिक व्रत। इस प्रकार आपकी स्वपर कल्याणकारी साधना चलती रही और बिहार प्रांत के पावापुरी में राजा हस्तीपाल की हार्दिक विनती सुनकर आपने अपना प्रवास किया और उसी प्रवास में कार्तिक कृष्णा अमावस्या की अर्धरात्रि में आपने संथारे में दिव्य देशना देते.देते नश्वर शरीर का त्याग कर निर्वाण पद को प्राप्त हुए।
तब से उस निर्वाण दिवस के उपलक्ष्य में जैनधर्म में दीपावली पर्व मनाने का क्रम चल पड़ा। भगवान महावीर के सिद्धांत आज भी उतने ही उपयोगी है, जितने उस समय थे। अगर व्यक्ति अहिंसा, संयम, तप को अपने जीवन में अंगीकार करे तो हर विषम समस्या का भी समाधान हो सकता है। हिंसा असंयम और भोग तो व्यक्ति को हर तरह से अशांत और दिग भ्रांत बनाने वाले होते हैं। शांति के इच्छुक को तटस्थ, आत्मस्थ होकर चिंतन करना चाहिये, तथा भगवान के जन्मदिवस पर इन्हें आत्मसात करने का शुभ संकल्प करना चाहिए।