शुभ भावों से की प्रवृत्ति भव सागर पार लगाती है – मुनि हिमांशुकुमार

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चेन्नई, 06जुलाई। (स्वरूप चन्द दांती ) मण्डोत गार्डन, तण्डियारपेट में शनिवारीय प्रवचनमाला में धर्म परिषद् को सम्बोधित करते हुए मुनिश्री हिमांशुकु‌मार ने कहा कि हमारे जैसे भाव होते, वैसे ही परिणाम होते हैं। पंच महाव्रती साधु साध्वियों को वन्दना श्रद्धा भाव से करनी चाहिए। मन में उत्कृष्ट, प्रसन्नता का भाव होना चाहिए।

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जैन आगम के अनुसार श्रीकृष्ण ने 22वें तीर्थकर अरिष्टनेमि के द्वारिका पधारने पर 18000 साधुओं को शुभ संकल्पों से, अहोभाव से, श्रद्धा से, विधि पूर्वक वन्दना करने से उन्हें अत्यधिक थकान महसूस हुई।तीर्थंकर अरिष्टनेमि से जिज्ञासा रखी कि भन्ते ! मैने सैकड़ों युद्ध कियें, कभी इतनी शारीरीक थकान महसूस नहीं हुई, आज क्यों ? भगवान समाधान में बताते है कि श्रद्धा पूर्वक, शुद्ध भावों से इतने साधुओं को वन्दना करने से तुम्हारे अशुभ दलित बंधे हुए कर्म टुटेहैं , इसलिए थकान महसूस हो रही हैं और परिणाम स्वरूप तुम्हारे तीर्थंकर गौत्र का भी बंधन हुआ है। आगामी चौबीसी में तुम भी मेरी तरह तीर्थंकर बनोंगे।

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श्रद्धा पूर्वक, शुद्ध भावों से करें धार्मिक प्रवृत्ति

मुनिश्री ने आगम सुक्त ‘भाव भव नाशनि’ अर्थात भाव भव को नाश करने वाले होते हैं- से प्रेरणा देते हुए कहा कि सामायिक के समय और उसके बाद भी मन में समत्व भाव बना रहे। आध्यात्मिक साधना की हर प्रवृत्ति में उत्साह बना रहना चाहिए और पापकारी, सावद्य प्रवृति में भाव धारा निष्पक्ष रहनी चाहिए।

मन, वचन, काया के योग से शुद्ध भावों से धार्मिक, आध्यात्मिक क्रिया करने से नीच गौत्र के कर्म टुटते है और उच्च गौत्र के कर्मों का बंधन होता है। अतः व्यक्ति को सांसारिक कार्यों में जागरुकता से, मंदता से, व्यावहारिक पक्ष के निर्वहन भावों से कार्य करना चाहिए।

मुनि श्री हेमंतकुमारजी ने कहा कि श्रमणों की उपासना करने वाला श्रमणोपासक होता है। साधुओं की सन्निधि में पहुंचना, वन्दना करना, उपासना करना और जिज्ञासा करने वाला श्रेष्ठ श्रावक कहलाता है। इससे पूर्व प्रात: एमकेबी नगर से विहार कर मुनिवर्य तण्डियारपेट पधारे। रास्ते में दोनों क्षेत्रों के श्रावकों ने सेवा की।

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