कैलास मानसरोवर से टूट जाएगा हिंदुओं का नाता ?

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  • मिसाइल बेस बना रहे चीन ने दूसरा रास्ता भी किया बंद

Kailash Mansarovar Yatra: नयी दिल्ली , 17 जुलाई। कैलाश मानसरोवर, जो भोले बाबा के भक्तों का सबसे प्रिय स्थान है और जहां जाने के लिए हिंदुओं में हमेशा उत्सुकता रहती है, क्या चीन उसका नाता हमेशा के लिए भारत से तोड़ने जा रहा है।

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2020 से यह लगातार पांचवां साल है, जब पवित्र कैलाश मानसरोवर यात्रा के दोनों आधिकारिक मार्ग भारतीयों के लिए बंद हैं। नेपाल के माध्यम से निजी मार्ग, जिसे पिछले साल चीन ने खोला था, वो ड्रैगन की तरफ से बनाए गये सख्त नियमों की वजह से सभी व्यावहारिक कारणों से भारतीयों के लिए उपलब्ध नहीं है।

यानि, पिछले पांच सालों से भारतीय हिंदू कैलाश मानसरोवर नहीं जा पा रहे हैं और ऐसी रिपोर्ट है, कि मिसाइस बेस बनाने की वजह से चीन ने दूसरा रास्ता भी बंद कर दिया है।

वैसे तो अब कोविड-19 को लेकर दुनिया में कहीं भी प्रतिबंध जैसा कुछ नहीं है, लेकिन चीन को लगता है, कि कैलाश मानसोवर रास्ते को खोलने से वहां कोविड महामारी फैल जाएगी। कोविड-19 महामारी को कारण बताकर चीन ने कैलाश पर्वत पर होने वाली कैलाश मानसरोवर यात्रा बंद कर रखी है।

कैलाश मानसरोवर, भगवान शिव का पवित्र निवास स्थान है, और ये जगह हिंदुओं के लिए अनमोल है। लेकिन थोड़ा खोजबीन करने पर यह साफ हो जाता है, कि 2020 में वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ने के बाद से ही चीन ने ये रास्ता बंद कर दिया था और इस कदम का मकसद सिर्फ और सिर्फ भारत के खिलाफ उसकी एक कार्रवाई है।

भारत के साथ समझौते तोड़ रहा चीन

न्यूज-18 ने भारतीय विदेश मंत्रालय से कैलाश मानसरोवर यात्रा के बारे में RTI के जरिए मिले कुछ जवाब सार्वजनिक किए हैं। ये RTI जवाब, चीन के साथ 2013 और 2014 में किए गए दो समझौतों की प्रतियां हैं। दोनों समझौतों में यह स्पष्ट होता है, कि चीन बिना किसी पूर्व सूचना के और एकतरफा फैसले लेते हुए भारत के साथ समझौतों को खत्म नहीं कर सकता है। भारतीय विदेश मंत्रालय का कहना है, कि किसी भी तरह का संशोधन आम सहमति से ही होना चाहिए।

लिहाजा, जानना जरूरी हो जाता है, कि आखिर चीन कैसे इन समझौतों का उल्लंघन कर रहा है?

पहला समझौता 20 मई 2013 को तत्कालीन विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद और चीन के तत्कालीन विदेश मंत्री वांग यी के बीच हुआ था। इससे यात्रा के लिए लिपुलेख दर्रा का रास्ता खुल गया था।

दूसरा समझौता 2014 में हुआ था, जब भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज थीं और चीन के विदेश मंत्री वांग यी ही थे। दोनों देशों ने ये समझौता 18 सितंबर 2014 को किया था, ताकि कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए नाथू ला दर्रा मार्ग शुरू किया जा सके।

कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए नाथू ला दर्रा मार्ग

अब सवाल ये उठता है, कि ये समझौते क्या कहते हैं?

पहले समझौते में कहा गया है, कि दोनों देशों के बीच किए गये पहले समझौते (2013) से प्रोटोकॉल लागू हो गया था और यह पांच साल की अवधि के लिए वैध किया गया था। इस समझौते के तहत, अगर पांच सालों के बाद दोनों देश इस मुद्दे को लेकर कुछ और फैसला नहीं करते हैं, तो फिर ये समझौता ऑटोमेटिक पांच सालों के लिए आगे बढ़ जाएगा।

और ऐसा तब तक होगा, जब तक कि कोई भी पक्ष प्रोटोकॉल को खत्म करने की घोषणा, समझौता खत्म होने की तारीख से कम से कम 6 महीने पहले लिखित तौर पर दूसरे पक्ष को ना बताए। यानि, अगर चीन को इस समझौते से हटना है, तो उसे समझौता खत्म होने की तारीख से कम से कम 6 महीने पहले भारत को बताना होगा।

समझौते में कहा गया है, कि “दोनों पक्ष सहमति के जरिए आवश्यकतानुसार प्रोटोकॉल को संशोधित और पूरक कर सकते हैं।”

वहीं, दूसरा समझौता, जो सुषणा स्वराज और वांग यी के बीच हुआ था, उस समझौते की भाषा भी पहले समझौते के समान ही है।

तीर्थयात्रियों को लेकर क्या नियम बनाए गये थे?

पहले समझौते में कहा गया था, कि हर साल, बड़ी संख्या में भारतीय तीर्थयात्री वाणिज्यिक टूर ऑपरेटरों और ट्रैवल एजेंटों के माध्यम से माउंट कैलाश और मानसरोवर की यात्रा कर सकते हैं। समझौते में कहा गया है, “चीनी पक्ष अपने घरेलू कानूनों और नियमों के अनुसार इन तीर्थयात्रियों को आवश्यक सुविधाएं और सहायता प्रदान करने के लिए सहमत है।”

दूसरा समझौता भारतीय तीर्थयात्रियों, जो टूर ऑपरेटरों और ट्रैवल एजेंटों के माध्यम से जाते हैं, उनको नाथू ला दर्रे के माध्यम से चीन में प्रवेश करने या बाहर निकलने की अनुमति देने के लिए था। इस मार्ग के तौर-तरीकों का कार्यान्वयन राजनयिक चैनलों के माध्यम से किया गया था।

भारतीयों के लिए तीसरा विकल्प नेपाल जाना और फिर निजी ऑपरेटरों के माध्यम से चीन में प्रवेश करना था। सभी मामलों में, भारतीयों को माउंट कैलाश और मानसरोवर की यात्रा करने के लिए चीन से वीजा लेने की आवश्यकता थी।

अब जानना जरूरी हो जाता है, कि आखिर कैलाश मानसरोवर है कहां?

कैलाश मानसरोवर का ज्यादातर हिस्सा तिब्बत में पड़ता है, जिसपर चीन ने 60 के दशक में कब्जा कर लिया था। कैलाश पर्वत ऋृंखला कश्मीर से लेकर भूटान तक फैली हुई है और कैलाश मानसरोवर ल्हा चू और झोंग चू नाम की दो जगहों के बीच एक पहाड़ है। इस जगह पर एक पहाड़ के दो जुड़े हुए शिखर हैं, जिनमें से उत्तरी शिखर को कैलाश कहा जाता है, जहां भोलेबाबा निवास करते हैं।

देखने पर पता चलता है, कि ये पर्वत एक विशाल शिवलिंग की तरह है और उत्तराखंड का लिपुलेख इस जगह से सिर्फ 65 किलोमीटर की दूरी पर है और चूंकी चीन ने कैलाश मानसरोवर के बड़े हिस्से पर कब्जा कर रखा है, इसीलिए यहां जाने के लिए भारतीयों को वीजा की जरूरत होती है।

हालांकि, पिछले साल चीन ने नेपाल के लोगों के लिए कैलाश मानसरोवर जाने के रास्ते खोल दिए, लेकिन भारतीयों को परेशान करने के लिए कई तरह के नये नियम बना डाले। इसके अलावा, भारत के तीर्थयात्रियों के लिए फीस काफी ज्यादा बढ़ा दी गई, जिसकी वजह से भारत के नागरिकों का कैलाश की यात्रा करना असंभव बन गया है।

रिपोर्ट के मुताबिक, इस साल भारत के सिर्फ 38 यात्री ही लाखों रुपये खर्च कर नेपाल के नेपालगंज से चार्टर्ड विमान के जरिए कैलाश मानसरोवर के दर्शन किए। भारतीय तीर्थयात्रियों ने ये दर्शन करीब 27 हजार फीट से किए।

2020 से पहले की स्थिति अलग थी और हर साल करीब 50 हजार हिंदू पवित्र कैलाश मानसरोवर की यात्रा करने के लिए जाया करते थए

कैलाश मानसरोवर की यात्रा में खर्च को लेकर क्या नियम हैं?

WION की रिपोर्ट के मुताबिक, 2020 के बाद चीन ने भारतीय तीर्थयात्रियों को लेकर नये नियम बना दिए, जिसके तहत नेपाल से ऑपरेट होने वाली ट्रैवल कंपनियां, जो भारतीय तीर्थयात्रियों को कैलाश मानसरोवर तक ले जाती हैं, उन्हें हर साल सीजन के दौरान 60 हजार डॉलर चीन के पास एडवांस जमा करने पड़ते हैं।

इसके अलावा, तिब्बत पर्यटन ब्यूरो, जिसे चीन कंट्रोल करता है, उसने भारतीय यात्रियों के लिए फीस को दोगुना कर दिया। 2020 से पहले भारतीय पर्यटकों से 1800 डॉलर, यानि करीब डेढ़ लाख रुपये फीस लिए जाते थे, जिसे बढ़ाकर अब 3000 डॉलर, यानि 2.5 लाख रुपये कर दिया गया है। इसके अलावा, जो भी यात्री कैलाश मानसरोवर जाने वाला है, रजिस्ट्रेशन के वक्त उसे खुद मौजूद रहना होगा। यानि, अगर एक परिवार के चार लोग यात्रा करना चाहते हैं, तो रजिस्ट्रेशन के वक्त चारों को जाना होगा। इस दौरान हर एक यात्री का बायोमेट्रिक निशान लिया जाता है और ये नियम इतने परेशान करने वाले हैं, कि भारतीयों ने अब जाना बंद कर दिया है।

तो क्या दूरबीन से करने होंगे कैलाश मानसरोवर के दर्शन?

भारत ने उत्तराखंड के पिथौरागढ़ के धारचूला में लिपुलेख चोटी पर भी एक स्थान विकसित किया है, जहां से जल्द ही सिर्फ 65 किलोमीटर की दूरी से कैलाश पर्वत को स्पष्ट रूप से देखा जा सकेगा।

इस महीने की शुरुआत में, उत्तराखंड सरकार ने घोषणा की थी, कि तीर्थयात्री इस साल 15 सितंबर से इस स्थान से कैलाश पर्वत को देख सकेंगे। इस यात्रा के लिए तीर्थयात्रियों को लिपुलेख तक गाड़ी से जाना होगा और फिर कैलाश पर्वत को देखने के लिए लगभग 800 मीटर पैदल चलना होगा। और फिर दूरबीन से तीर्थयात्री कैलाश के दर्शन कर सकेंगे।

हालांकि, बड़ा सवाल यह है, कि क्या चीन भारत के साथ किए गए समझौतों का स्पष्ट उल्लंघन करते हुए हिंदुओं के सबसे पवित्र स्थलों कैलाश पर्वत और मानसरोवर तक भारतीयों की पहुंच को एकतरफा तरीके से बंद करना जारी रख सकता है? जो लोग कैलाश पर्वत पर गए हैं, वे इस बात से सहमत होंगे, कि पवित्र पर्वत और मानसरोवर की व्यक्तिगत परिक्रमा करने से बेहतर कोई आध्यात्मिक अनुभव नहीं है, इसलिए भारत सरकार को इसमें मजबूती से हस्तक्षेप करना चाहिए।

कैलाश मानसरोवर के इतिहास को समझिए

ऐसा नहीं है, कि कैलाश मानसरोवर पर हमेशा से चीन का कब्जा था, बल्कि भारत की आजादी से पहले कैलाश मानसरोवर तिब्बत का हिस्सा हुआ करता था और भारत के लोग बगैर परेशानी यात्रा किया करते थे। उस वक्त तक तिब्बत एक स्वतंत्र देश हुआ करता था, लेकिन 1950 में चीन ने तिब्बत पर हमला कर दिया और फिर उसपर कब्जा कर लिया। कब्जे से पहले तिब्बत, भारत और चीन के बीच एक बफर स्टेट की तरह काम करता था और 1950 से पहले भारत और चीन की सीमा नहीं मिलती थी, लेकिन तिब्बत पर कब्जा करने के बाद चीन और भारत की सीमा भी मिल गई और उसके बाद से ही चीन ने भारतीय इलाकों में घुसपैठ शुरू कर दी।

चीन अरूणाचल प्रदेश को भी तिब्बत का हिस्सा मानता है और उसपर दावा ठोकता रहता है।

ऐसा नहीं है, कि तिब्बत पर चीनी कब्जे की भारत की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं दी गई। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने चीन की कड़ी निंदा करते हुए तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा को भारत में शरण भी दिया था। नेहरू की सरकार ने उस वक्त तिब्बत पर चीनी कब्जे को मान्यता देने से इनकार कर दिया था और फिर धर्मशाला में निर्वासित तिब्बतियों की सरकार भी बनवाई थी। हालांकि, बाद में जियो-पॉलिटिकल हालात को देखते हुए भारत ने तिब्बत को चीन का हिस्सा आधिकारिक तौर पर मान लिया और उसके बाद से भारत और चीन के बीच एक अंतहीन विवाद की शुरूआत हो गई।

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